Jati janganna modi sarkar

क्या जाति जनगणना मोदी सरकार की मजबूरी बन गई है ? जानिए अंदर की कहानी

कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले को लेकर देश में गुस्सा है, इसी बीच सरकार ने जाति जनगणना कराने का फैसला लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बुधवार को हुई कैबिनेट की बैठक में तय किया गया कि आने वाली जनगणना में जातियों की गिनती भी की जाएगी।

आजादी के बाद यह पहली बार होगा जब पूरे देश में जाति आधारित जनगणना होगी। बीजेपी और उसके सभी सहयोगी दल इस फैसले को ऐतिहासिक बता रहे हैं। वहीं कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और बाकी विपक्षी पार्टियां इसे अपनी पुरानी मांग की जीत मान रही हैं।

जाति जनगणना क्या है?

जाति जनगणना का मतलब है – लोगों की गिनती उनके जाति के आधार पर करना। भारत में एक ही धर्म के अंदर कई तरह की जातियां होती हैं। जब सरकार को यह जानकारी मिलती है कि किस जाति के कितने लोग हैं, तो उसे योजनाएं बनाने और ज़रूरतमंद लोगों तक मदद पहुँचाने में आसानी होती है।

इससे सरकार को यह समझने में मदद मिलती है कि किस जाति को शिक्षा, रोजगार या अन्य सुविधाओं की ज्यादा जरूरत है। ऐसे में कल्याणकारी योजनाएं बेहतर तरीके से बनाई जा सकती हैं।

भारत में जाति जनगणना पहले कब हुई थी?

भारत में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश शासन के समय हुई थी। साल 1881 से लेकर 1931 तक हर जनगणना में जातियों की गिनती की जाती थी। लेकिन आज़ादी के बाद, 1951 से इसे बंद कर दिया गया। इसके पीछे तर्क यह था कि जाति की गिनती करने से समाज में जातिगत और सामाजिक विभाजन बढ़ सकता है।

1880 मे भारत मे जाति जनगणना की ai इमेज

हालांकि, इसके बाद भी सरकार अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की जानकारी जनगणना में दर्ज करती रही और उससे जुड़े आंकड़े समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे।

आखिरकार क्यों बढ़ रही है जातिगत जनगणना की मांग?

आज के समय में जाति जनगणना की मांग लगातार तेज हो रही है। इसके पीछे तीन बड़े कारण माने जा सकते हैं:

1. आरक्षण की नीति पुराने आंकड़ों पर आधारित है:
इस समय जो आरक्षण की व्यवस्था चल रही है, वह कई दशक पुराने अनुमानित आंकड़ों पर बनी है। अब जबकि देश की आबादी और सामाजिक संरचना काफी बदल चुकी है, तो ज़रूरी हो गया है कि नई जनगणना के आधार पर आरक्षण की नीति को फिर से परखा और तैयार किया जाए।

2. समाज की असली तस्वीर सामने आएगी:
कई सालों से आरक्षण लागू है, लेकिन इससे समाज में कितना बदलाव आया है, ये ठीक से पता नहीं चलता। जातिगत आंकड़े आने से यह साफ हो पाएगा कि किन वर्गों को अब भी ज़्यादा सहायता की ज़रूरत है और किन्होंने तरक्की कर ली है।

3. कई राज्य पहले ही जाति जनगणना करवा चुके हैं:
बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने पहले ही जाति आधारित सर्वे करवाए हैं। बिहार की जनगणना में तो यह सामने आया कि ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) और ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) की आबादी कुल मिलाकर 63% से भी ज्यादा है। इससे राज्य की राजनीति और नीतियों का रुख काफी बदल गया।

इस जनगणना से क्या बदल जाएगा?

जाति आधारित जनगणना सिर्फ आंकड़ों की गिनती नहीं होगी, बल्कि इसके कई बड़े असर देश की राजनीति, नीतियों और समाज पर पड़ सकते हैं। इसके कुछ मुख्य बदलाव इस तरह हो सकते हैं:

1. कल्याणकारी योजनाएं और आरक्षण नीतियां फिर से तय होंगी:
जाति जनगणना के बाद सरकार को यह स्पष्ट जानकारी मिल जाएगी कि कौन-कौन से वर्ग कितनी आबादी में हैं और किसे ज्यादा सहायता की जरूरत है। इससे रोजगार, शिक्षा और अन्य योजनाओं में आरक्षण को दोबारा व्यावहारिक रूप से तय किया जा सकेगा।

2. 50% आरक्षण की सीमा पर पुनर्विचार संभव:
इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50% तय की थी। लेकिन अगर आंकड़े दिखाते हैं कि कुछ वर्ग बहुत बड़ी संख्या में अब भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, तो उस आधार पर 50% सीमा पर दोबारा विचार किया जा सकता है।

3. ओबीसी वर्ग के लिए नए अवसर खुल सकते हैं:
भारत में ओबीसी आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। अगर आंकड़ों से यह साबित होता है कि वे अभी भी पिछड़े हैं, तो “सकारात्मक कार्रवाई” (affirmative action) को और आगे बढ़ाने का संवैधानिक रास्ता खुल सकता है।

4. राजनीति का चेहरा भी बदलेगा:
जातिगत आंकड़ों के आने से राजनीतिक दलों को नए सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए अपने गठबंधन, उम्मीदवारों के चयन और नीतियों में बदलाव करना होगा। इससे चुनावों की रणनीति में बड़ा बदलाव आ सकता है।

जातीय जनगणना के फायदे

जाति जनगणना से सरकार को समाज की सटीक सामाजिक और आर्थिक तस्वीर मिलती है, जिससे ज़रूरतमंद वर्गों तक मदद पहुँचाना आसान हो जाता है। इससे आरक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी योजनाओं को बेहतर तरीके से लागू किया जा सकता है। जो वर्ग अब भी पीछे हैं, उन्हें सही पहचान कर ज्यादा अवसर दिए जा सकते हैं। इससे सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिलेगा और नीतियों में पारदर्शिता आएगी।

जातीय जनगणना के नुकसान

इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि जातिगत आंकड़ों का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए किया जा सकता है, जिससे समाज में विभाजन और टकराव बढ़ सकता है। अगर जातियों के बीच तुलना या प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो सामाजिक एकता को नुकसान हो सकता है। इसके अलावा, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इससे जातिवाद की भावना और भी गहरी हो सकती है, जो देश की प्रगति में बाधा बन सकती है।

जाति जनगणना पर मोदी सरकार का फैसला भारतीय राजनीति के लिए अहम मोड़ साबित हो सकता है। यह सवाल उठता है कि क्या यह कदम राजनीतिक दबाव, चुनावी समीकरणों या सामाजिक न्याय की आवश्यकता का परिणाम है। हालांकि, सरकार का दावा है कि यह निर्णय समाज के पिछड़े वर्गों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए लिया गया है, लेकिन इसके पीछे की रणनीतियां और लक्ष्य पर लगातार बहस जारी रहेगी। अंततः, यह देखना होगा कि जाति जनगणना का असर देश की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर किस प्रकार पड़ेगा।

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